कवितावली/लक्ष्मण -मूर्छा और राम का विलाप( तुलसीदास)Tulsidas:Lakshaman murcha avm ram ka vilap।

 प्रश्न 1. ‘कवितावली' से उद्धृत छंदों के आधार पर स्पष्ट करें कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है।

उत्तर : तुलसीदास के युग में राजतंत्र था। राजा व उसके दरबारियों के पास सबसे अधिक धन था। समाज के अधिकतर लोग निर्धन थे। उनके पास भरपेट भोजन भी नहीं होता था। तुलसीदास ने इस आर्थिक विषमता को ध्यान से देखा और उसे अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया। 'कवितावली' के प्रथम छंद में उन्होंने स्पष्ट किया है कि मजदूर, किसान, व्यापारी, भिखारी, चारण, नट आदि सभी लोगों के काम-धंधे चौपट हो चुके थे। वे अपना व अपने परिवार का पेट भरने के लिए शिकार करते थे, दूसरे काम-धंधे सीखने का प्रयास करते थे। पेट भरने के लिए वे अपनी ही संतान को बेच देते थे। सभी लोग यही सोचते थे कि अब वे क्या करें, कहाँ जाएँ।

चूँकि तुलसीदास ने अपने छंदों में इस गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि का स्पष्ट वर्णन किया है, अतः यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ थी।

प्रश्न 2. पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्क संगत उत्तर दीजिए ।

उत्तर : पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है - तुलसी का यह काव्य-सत्य मेरे विचार से इस समय का युग-सत्य नहीं है। पेट की आग (भूख) को शांत करने के लिए कर्म करने की आवश्यकता होती है। ईश्वर ने इस संसार में प्राणी व उसके लिए भोजन-इन दोनों की व्यवस्था की है, परंतु उस भोजन को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को भक्ति नहीं बल्कि कर्म करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, सन् 1905 में जो भीषण अकाल पड़ा था, उसमें लाखों लोग भूख से मर गए थे । निस्संदेह, उन्होंने ऐसे समय पर ईश्वर का स्मरण भी किया होगा, परंतु ईश्वर भक्ति का मेघ उनके पेट की आग का शमन न कर सका। आज भी संसार में हजारों लोग भूख से मर रहे हैं, जबकि वे किसी-न-किसी रूप में ईश्वर की भक्ति करते हैं। अतः मेरे विचार से तुलसीदास का यह काव्य सत्य आज के समय का युग-सत्य नहीं है।

प्रश्न 3. तुलसी ने यह कहने की जरूरत क्यों समझा द्यूत कही, अवधूत कही, रजपूतु कही, जोलहा कहौ कोऊ । काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ। इस सवैया में 'काहू के बेटासों बेटी न ब्याहब कहते' तो सामाजिक अर्थ में क्या परिवर्तन आता?

 उत्तर : तुलसीदास ने यह कहने की जरूरत इसलिए समझी क्योंकि तत्कालीन समाज में भेदभाव की भावना बहुत अधिक प्रचलित थी। 'काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब' पंक्ति से इस तथ्य का संकेत मिलता है कि भारतीय समाज वास्तव में पुरुष- प्रधान समाज है। ऐसे समाज में बेटे के माता-पिता अपने आपको बेटी के माता-पिता की तुलना में अधिक श्रेष्ठ समझते हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज में बेटी के माता-पिता को अपने दामाद (पुरुष) व उसके माता-पिता के सामने झुकना पड़ता है।

यदि तुलसीदास कहते कि 'काहू के बेटासों बेटी न ब्याहब', तब इसका अर्थ यह होता कि भारतीय समाज नारी-प्रधान समाज है। इससे भारतीय समाज व संस्कृति की सच्ची झलक उनके काव्य में प्रस्तुत नहीं हो पाती है।

प्रश्न 4. “ धूत कही ." वाले छंद में ऊपर से सरल व निरीह दिखलाई पड़ने वाले तुलसीदास की भीतरी असलियत एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है। इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?

उत्तर : इस छंद की आरंभिक दो पंक्तियों में कवि तुलसीदास की एक सरल व निरीह व्यक्ति के रूप में उभरती है। परंतु अंतिम दो पंक्तियों में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मैं तो केवल श्रीराम का भक्त हूँ। एक स्वाभिमानी व्यक्ति ही अपने मन के भाव पूर्ण रूप से प्रकट कर सकता है। स्वाभिमानी व्यक्ति न तो अपने स्वार्थ की ओर ध्यान देता है और न ही दूसरों का अहित करता है। तुलसीदास भी कहते हैं कि मैं न तो किसी व्यक्ति से कुछ लेता हूँ और न ही दूसरे को देता हूँ। वे एक स्वाभिमानी व्यक्ति की तरह निष्पक्ष हैं। अतः यह कथन पूर्ण रूप से सही है कि ऊपर से सरल व निरीह दिखाई देने वाले तुलसीदास की भीतरी असलियत एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है।

प्रश्न -5 व्याख्या करें।

(क) मम हित लागि तेजहु पितु माता । सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू । पितु बचन मनतेउँ नहि ओहू ।। 

(खा) जथा पंख बिनु खग अति दीना । मनि बिनु फनि करिबर कर हीना । अस मम जीवन बंधु बिन तोहि । जौं जड़ देव जिआवै मोहि ।।

(ग) माँगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो को एकु न दैबो को दोऊ ।।

 (घ) ऊँचे नीचे करम, धरम-अधरम करि, पेट ही को पचत बेचत बेटा-बेटकी ।।

उत्तर : (क) इन पंक्तियों में कवि ने प्रभु श्रीराम को साधारण मनुष्य की तरह विलाप करते हुए दर्शाया है। वे मूर्च्छित पड़े लक्ष्मण से कहते हैं कि हे भाई! तुम्हें मुझसे अत्यधिक प्रेम था। मेरी भलाई के लिए ही तुमने माता-पिता को त्याग दिया और मेरे साथ वन में आ गए। इस वनवास के दौरान तुमने मेरे हित के लिए ही जंगल, बर्फ, धूप, आँधी आदि को सहन किया। यदि मैं जानता कि वनवास के दौरान मुझे अपना भाई गँवाना पड़ेगा, तब मैं अपने पिता का वचन नहीं मानता और इस तरह तुम्हारे साथ वन में नहीं आता।


(ख) इन पंक्तियों में श्रीराम साधारण मनुष्य की तरह विलाप करते हुए कहते हैं कि हे भाई लक्ष्मण! यदि तुम स्वस्थ नहीं हुए या यदि मैं तुम्हें बचा न सका और यदि निष्ठुर भाग्य ने मुझे जीवित रखा, तब तुम्हारे बिना मेरा जीवन उसी प्रकार व्यर्थ होगा, जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना साँप और सूँड के बिना हाथी का जीवन व्यर्थ और दीन हो जाता है।


(ग) इस पंक्ति में तुलसीदास अपने स्वाभिमान की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि मैं भीख माँग कर खाना खाता हूँ और मस्जिद में जाकर सोता हूँ। मैं न तो किसी से कुछ लेता हूँ और न ही दूसरे को कुछ देता हूँ अर्थात् मैं तो समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त हूँ।


(घ) इस पंक्ति में कवि ने तत्कालीन समाज में फैली गरीबी, बेरोजगारी व विवशता का वर्णन किया है। कवि कहता है। कि गरीबी, भूखमरी के कारण लोग अब धर्म-अधर्म या पाप-पुण्य की बात नहीं सोचते हैं। वे अपनी जाति, वर्ण आदि को भूलकर कोई भी ऊँचा-नीचा काम करने के लिए तैयार हैं। अपना पेट भरने के लिए ये लोग अपने ही बेटे-बेटियों को बेच देते हैं।


प्रश्न 6. भ्रातृशोक में हुई राम की दशा को कवि ने प्रभु की नर लीला की अपेक्षा सच्ची मानवीय अनुभूति के रूप में रचा है। क्या आप इससे सहमत हैं? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।


उत्तर : तुलसीदास ने अपनी रचना में श्रीराम को परब्रह्म बताया है। परंतु उन्होंने प्रभु की नर-लीला की अपेक्षा सच्ची मानवीय अनुभूति के रूप में श्रीराम की दशा को रचा है। इस कथन से मैं पूर्ण रूप से सहमत हूँ और इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं :


(i) यद्यपि श्रीराम परब्रहम् हैं और वे भूत, वर्तमान व भविष्य काल की समस्त घटनाओं को जानते हैं। वे अपनी दैवीय शक्तियों का प्रयोग नहीं करते बल्कि साधारण मानव के रूप में विलाप करते हैं।

(ii) साधारण मानव जब भी अपने परिजन को कष्ट में देखता है, तब वह स्वयं को सबसे अधिक दोष देता है। श्रीराम जब कहते हैं कि यदि मुझे पता होता कि वन में आकर अपना भाई गँवाना पड़ेगा, तब मैं पिता का कहना ही नहीं मानता। उनके इस प्रलाप में एक सच्ची मानवीय अनुभूति प्रकट होती है।

(iii) श्रीराम का प्रत्येक कथन मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत (भरा हुआ) है। वे प्रत्येक कथन में स्वयं को साधारण मनुष्य । के अनुरूप विवश, दीनहीन व असहाय दर्शाते हैं, जबकि वे ईश्वर हैं।


प्रश्न 7. शोकग्रस्त माहौल में हनुमान के अवतरण को करुण रस के बीच वीर रस का आविर्भाव क्यों कहा है?

उत्तर : काव्य में करुण रस तब उत्पन्न होता है, जब दुख, शोक, दयनीय दशा, विवशता, विलाप से युक्त स्थिति हो । इसके विपरीत वीर रस तब उत्पन्न होता है, जब काव्य में उत्साह, साहस, वीरता आदि से युक्त स्थिति है। इस प्रकार करुण रस के बीच वीर रस के आविर्भाव से तात्पर्य है - शोकमय वातावरण का उत्साह व साहसमय वातावरण में बदल जाना ।

जब तक हनुमान संजीवनी बूटी लेकर लंका नहीं पहुँचे थे, तब तक श्रीराम व उनकी सेना लक्ष्मण-मूर्च्छा के कारण शोकग्रस्त थे। ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था, त्यों-त्यों उनका दुख बढ़ता जा रहा था। परंतु जैसे ही उन्हें संजीवनी बूटी के साथ हनुमान दिखाई दिए, वैसे ही उनका दुख उत्साह में बदल गया। उन्हें लगा कि अब लक्ष्मण स्वस्थ हो जाएँगे और सारे दुख समाप्त हो जाएँगे। इसीलिए शोकग्रस्त माहौल में हनुमान के अवतरण को करुण रस के बीच वीर रस का आविर्भाव कहा गया है।

प्रश्न 8. 'जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई ।

बरू अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि विसेष छति नाहिं ।।'

 भाई के शोक में डूबे राम के इस प्रलाप-वचन में स्त्री के प्रति कैसा सामाजिक दृष्टिकोण संभावित है? 

उत्तर : भारतीय संस्कृति में नारी को पूजनीय बताया गया है। ग्रंथों में कहा भी गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। परंतु भाई के शोक में डूबे राम के इस प्रलाप-वचन में स्त्री के प्रति संकुचित व उपेक्षित दृष्टिकोण दिखाई देता है। तुलसीदास के युग में नारी की उपेक्षा की जाती थी क्योंकि तब भारतीय समाज भी पुरुष-प्रधान समाज बन चुका था। मुसलमानों के कारण नारी को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था। शायद यही कारण है कि तुलसीदास जैसे महाकवि ने अपनी रचना में युग-सत्य के कारण नारी के प्रति ऐसा संकुचित दृष्टिकोण अपनाया हो। इसीलिए उन्होंने श्रीराम के मुख से कहलवाया गया है कि नारी की हानि कोई विशेष हानि नहीं होती है।

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